दो अद्भूत काव्य कण

‘प्रेम’ यह कवियोंका तथा लेखकोंका ही नही, बल्कि संतोंका भी सर्वाधिक प्रिय विषय है । इस बातको सिद्ध करनेकी कोई आवश्यकता नही है।

इस अद्भूत ‘प्रेम’ के विषयमें दिनदासमकवि यहाँ दो अद्भूत पद संकलीत कर ऊनका रसास्वादन कराना चाहता है क्युंकि इन पदोंमें सत्य प्रेम-विषयक कविता होनेके साथ-साथ क्रमशः भगवान् शंकर और भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप-ध्यान सम्मिलित है। 

पद अन्य कवियोंके हैं तथापि इनका संबंध लगाकर इन्हें जोड देना तथा सरल बनाकर समझाना यह दिनदासमकवि का रोमांचक प्रयास है । यह इस कविका मूल कवियोंके चरणोंमें प्रणाम है ।

१.

आदर्श प्रेमीकी उपमाके लिए कविता जगतमें चातक पक्षीका विशिष्ट स्थान है। चातक चंद्रसे इतना प्रेम करता है कि वह दिनभर चंद्रकी प्रतिक्षा करता रहता है और जब चंद्र निकल आता है तब वह सारी रात चंद्रको एकटक देखते-देखते ही बिता देता है । 

इसी चातक पक्षीमें एक और विशेषता यह पायी जाती है कि वह अँगारोंको अपने प्राणोंकी चिंता किए बिना ही खा लेता है । 

इन दोनों विशेषताओंको कविने भगवान् शंकरकी सहायता लेकर बडे ही अद्भूत ढंगसे एकत्र कर दिया है । 

पद यह है : 

प्रियसौं मिलौं भभूति बनि ससि-सेखरके गात ।

यहै बिचारि अँगारकों चाहि चकोर चबात ।।

इसकी पूजनीय श्री वियोगी हरिजीकी प्रस्तुति (‘प्रेम-योग’ पुस्तकसे):

चकोरीके आग खानेमें क्या रहस्य है ? यह भी क्या कोई प्रेम-साधना है ? हाँ, अवश्य, यह भी एक साधना है और बड़ी ऊँची साधना है । इस विचारसे चकोरी अँगार खाती है कि मैं भस्म हो जाऊँ, कदाचित् उस भस्मको शिवजी अपने ललाटपर लगा लें और वहाँ प्यारे चंद्रसे भेंट हो जाय ! धन्य है उसकी यह प्रिय दर्शनाभिलाषा ! अँगार चबानेका लो यह जवाब है । अब भी कुछ शंका है ? 

इस पदका दिनदासमका अनुवाद :

राख बन, लग चंद्रशेखर तन

पीयासे चाहती है मिलन । 

यही सोचकर चातक 

अँगारका करती है चर्वण ।।

यहाँ महादेव भगवान् शंकरके स्वरूपकी दो विशेषताओंको स्मरण करना चाहिए-

पहली, भगवान् शंकरके भाल पर चंद्रमा शुशोभित है । इसीसे आपके शशिशेखर और चंद्रशेखर यह नाम पडे हैं । 

दुसरी, भगवान् शंकर अपने सारे शरीरपर भभूति मलकर अत्यंत प्रसन्नताका अनुभव करते है ।

नमन । 

२. 

मोरका मेघसे प्रेम भी कविजगतमें प्रसिद्ध है । वैसे ही प्रेमावतार भगवान् श्रीकृष्णके मस्तकपर मोरका पंख रहता है । इन दोनोंका मिलान कविने अद्भूत ढंगसे कर दिया है । 

पद :

मोर सदा पिउ-पिउ करत नाचत लखि घनस्याम ।

यासों   ताकी   पाँखहूँ,   सिर   धारी   घनस्याम ।।

-अम्बिकादत्त व्यास 

श्री वियोगी हरिजी :

श्यामघनसे मयूरकी इतनी अधिक प्रीति होनेसे ही प्यारे घनश्यामने उसके पंखोंका मुकुट अपने मस्तकपर धारण किया है । धन्य प्रेमोन्मत्त मयूरका भाग्य ! 

दिनदासमका अनुवाद :

सदा रटत पिउ-पिउ, नाचत थई देख घन श्याम ।

प्रेम जानी, मोर-पंख-सिर-धारी कहाए घनश्याम ।।

जैसे कोयल कूहू-कूहू करती है वैसे ही मोर पिउ-पिउ ध्वनी करता है । पिउ का अर्थ पीया होता है । इससे मोरकी वह ध्वनी अपने प्रियतमका निरंतर नामोच्चारण हो जाता है ! मोरका मेघको देखकर अति प्रसन्न होकर नाचना तो प्रसिद्ध ही है । मोरके इन्हीं उच्चतम प्रेमलक्षणोंसे प्रसन्न होकर भगवान् श्रीकृष्णने उसके पंखको अपने शरीरका उच्चतम स्थान दे दिया है ऐसा कहकर कविने कितना उच्चतम काव्य रच डाला है !

नमन । 

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